शनिवार, १२ डिसेंबर, २०१५

ज्ञानेश्वरी नित्यपाठ --स्वामी स्वरूपानंद संपादित




नमोजी आद्या |                                     
वेदप्रतिपाद्या |
जय जय स्वसंवेद्या |
आत्मरुपा ||1||

देवा तूंची गणेश |
सकलमतिप्रकाश |
म्हणे निवृत्तिदास |
अवधारिजो ||||

आता अभिनववाग्विलासिनी |
जे चातुर्यार्थकलाकामिनी |
ते श्रीशारदा विश्वमोहिनी |
नमिली मियां ||||

मज हृदयी सद्गुरू |
जेणें तारिलो हा संसारपूरू |
म्हणौनि विशेषे अत्यादरू |
विवेकावरी ||||

या उपाधिमाजी गुप्त |
चैतन्य असे सर्वगत |
ते तत्त्वज्ञ संत |
स्वीकारिती ||||

उपजे तें नाशे |
नाशलें पुनरपि दिसे |
हें घटिकायंत्र तैसें |
परिभ्रमे गा ||||

जैसें मार्गे चि चालतां |
अपावो न पवे सर्वथा |
कां दीपाधारें वर्ततां |
नाडळिजॆं ||||

तयापरी पार्था |
स्वधर्मे राहाटतां |
सकाळकामपूर्णता |
सहजें होंय ||||

सुखी संतोषा न यावे |
दुखी विषादा न भजावे |
आणि लाभालाभ न धरावे |
मनामाजी ||९||

आपणयां उचिता |
स्वधर्मे राहाटतां |
जें पावे तें निवांता |
साहोनि जावें ||१०|
 
आम्ही हि विचारिलें |
तंव ऐसे चि हे मना आलें |
जे न सांडिजे तुवां आपुलें |
विहित कर्म ||११|


परि कर्मफळी आस न करावी |
आणि कुकर्मी संगति न व्हावी |
हे सत्क्रियाचि आचरावी |
हेतुवि ||१२||

तूं योगयुक्त होऊनि |
फळाचा संग टाकुनि |
मग अर्जुना चित्त देऊनी |
करी कर्मे ||१३||

परि आदरिले कर्म दैवें |
जरी समाप्तीते पावे |
तरी विशेषे तेथ तोषावें |
हें ही नको ||१४||
कीं निमित्ते कोणे एके |
तें सिद्धी न वचतां ठाके |
तरी तेथीचेनि अपरितोखें |
क्षोभावे ना ||१५||

देखे जेतुलाले कर्म निपजे |
तेतुलें आदिपुरुषी अर्पिजे | 
तरी परिपूर्ण सहजे | 
जाहलें जाण ||१६||


म्हणौनी जें जें उचित |
आणि अवसरेकरूनि प्राप्त |
ते कर्म हेतुरहित |
आचरे तूं ||१७||

देखे अनुक्रमाधारे |
स्वधर्म जो आचरे |
तो मोक्ष तेणें व्यापारे |
निश्चित पावे ||१८||

स्वधर्म जो बापा |
तो नित्ययज्ञ जाण पां |
म्हणौनी वर्ततां तेथ पापा |
संचारू नाहीं ||१९||


हा निजधर्म जैं सांडे |
आणि कुकर्मी रति घडे |
तैं चि बंध पडे |
सांसारिक ||२०||

म्हणोनि स्वधर्मानुष्ठान |
ते अखंड यज्ञ याजन |
जो करी तया बंधन |
कही चि डे ||२१||

अगा जया जें विहित |
तें ईश्वराचे मनोगत |
म्हणौनि केलिया निभ्रांत |
सापडे चि तो ||२२||

तें विहित कर्म पांडवा |
आपुला न्य वोलावा |
आणि हे चि परम सेवा |
मज सर्वात्मकाची ||२३||

तया सर्वात्मका ईश्वरा |
स्वकर्मकुसुमांची वीरा |
पूजा केली होय अपारा |
तोषालागी ||२४||

ते क्रियाजात आघवे |
जे जैसे निपजेल स्वभावे |
ते भावना करोनि करावे |
माझिया मोहरा ||२५||

आणि हे कर्म मी कर्ता |
कां आचरेन या अर्था |
ऐसा अभिमान झणे चित्ता |
रिघो देसी ||२६||
तुवां शरीरपरां नोहावें |
कामनाजात सांडावे  |
मग अवसरोचित भोगावे |
भोग सकाळ ||२७||

तू मानसा नियम करीं |
निश्चळु होय अंतरी |
मग कर्मेंद्रिये व्यापारु |
वर्ततु सुखे ||२८||

परिस पां सव्यसाची  |
मूर्ति लाहोनि देहाची |
खंती करिती कर्माची |
ते गावंढे ||२९||

देख पां जनकादिक |
कर्मजात अशेख |
 सांडीता मोक्षसुख |
पावते जाहले ||३०||

देखे प्राप्तार्थ जाहले|
जे निष्कामता पावले |
यां ही कर्तव्य असे उरले |
लोकांलागी ||३१||

मार्गी अंधासरिसा |
पुढे देखणाही चाले जैसा |
अज्ञाना प्रगटावा धर्म तैसा |
आचरोनी ||३२||

एथ वडील जें जें करिती |
तया नाम धर्म ठेविती |
तें चि येर अनुष्ठिती |
सामान्य सकळ ||३३||  
हें ऐसें असे स्वभावें |
म्हणौनि कर्म न संडावे |
विशेषे आचरावे  |
लागे संतीं  ||३४||


दीपाचेनि प्रकाशे |
गृहीचे व्यापार जैसे |
देही कर्मजात तैसें |
योगयुक्ता ||३५||


तो कर्मे करी सकळें |
परी कर्मबंधा नाकळे |
जैसें न सिंपे जळी जळें |
पद्मपत्र ||३६||


तया हि देह एक कीर आथी |
लौकिकी सखदु:खी तयाते म्हणती |
परी आम्हाते ऐसी प्रतीति |
परब्रह्म ची हां ||३७||

देह तरी वरिचिलीकडे | 
आपुलिया परी हिंडे |
परी बैसका न मोडे |
मानसीची ||३८||

अर्जुना समत्व चित्ताचे |
ते चि सार जाण योगाचे |
जेथ मन आणि बुद्धीचे |
ऐक्य आथी ||३९|| 
देखे अखंडित प्रसन्नता |
आथी जेथ चित्ता |
तेथ रिणे नाही समस्ता |
संसारदुःखां||४०||

जैसा अमृताचा निर्झरु |
प्रसवे जयाचा जठरु |
तया क्षुधेतृषेचा अडदरू |
कही चि नाही ||४१||

तैसे हृदय प्रसन्न होये |
तरी दु:ख कैचे के आहे |
तेथ आपैसी बुद्धी राहे |
परमात्मरूपी ||४२||

जैसा निर्वातीचा दीपु |
सर्वथा नेणे कंपु |
तैसा स्थिरबुद्धी स्वस्वरूपु |
योगयुक्त ||४३||

जया पुरुषांचा ठायी |
कर्माचा तरी खेदु नाही |
आणि फलापेक्षा कही |
संचरेना ||४४||
आणि हें कर्म मी करीन | 
अथवा आदरिले सिद्धी नेईन |
येणे संकल्पेही जयाचे मन |
विटाळे ना ||४५||
ज्ञानाग्नीचेनि मुखे |
जेणे जाळिली कर्मे अशेखे |
तो परब्रह्मचि मनुष्यवेखें |
वोळख तूं ||४६||

ते ज्ञान पैं गा बरवें |
जरी मनी आथी जाणावें |
तरी संतां यां भजावें |
सर्वस्वेंसीं ||४७||

जे ज्ञानाचा कुरुठा |
तेथ सेवा हा दारवंटा |
तो स्वाधीन करी सुभटा |
वोळगोनि ||४८||
तरी तनुमनुजीवें |
चरणासी लागावें |
आणि अगर्वता करावें |
दास्य सकळ || ४९||

मग अपेक्षित जें आपुलें |
तेही सांगती पुसिलें |
जेणें अंत:करण बोधले |
संकल्पा न ये ||५०||
ते  वेळी आपणपेयां सहिते |
इये अशेषेही भूतें |
माझ्या स्वरूपीं अखंडितें |
देखसी तूं ||५१||
ऐसें ज्ञानप्रकाशे पाहेल |
तैं मोहांधकारू जाईल |
जैं गुरुकृपा होईल |
पार्था गा ||५२||
जरी कल्मषाचा आगरु |
तूं भ्रांतीचा सागरू |
व्योमोहाचा डोंगरु |
होऊन अससी ||५३||

तरी ज्ञानशक्तीचेनि पाडें |
हें आघवें चि गां थोकडें |
ऐसे सामर्थ्य असे चोखडे |
ज्ञानी इये ||५४||

मोटके गुरुमुखे उदैजत दिसे |
हृदयी स्वयंभची असे |
प्रत्यक्ष फावो लागे तैसे |
आपैसायाचि ||५५||

सांगे अग्नीस्तव धूम होये |
तिये धूमीं काय अग्नी आहे |
तैसा विकारु हा मी नोहें |
जरी विकारला असे ||५६||

देह तंव पांचाचे जालें |
हें कर्माचे गुणी  गुंथले |
वंतसे चाकीं सूदलें |
जन्ममृत्यूच्या ||५७||

हे काळानळाच्या तोंडी |
घातली लोणियांची उंडी |
माशी पांख पाखडीं |
तंव हे सरे ||५८||

या देहाची हे दशा |
आणि आत्मा तो एथ ऐसा |
पै नित्य सिद्ध आपैसा  |
अनादिपणे ||५९||

सकळ ना निष्कळु |
अक्रीय ना क्रियाशीळु |
कृश ना स्थूळु |
निर्गुणपणें ||६०||लू

आनंद ना निरानंदु |
एक ना विविधु |
मुक्त ना बद्धु |
आत्मपणें ||६१||

तें परमतत्व पार्था |
होती ते सर्वथा |
जे आत्मानात्मव्यवस्था |
राजहंस ||६२||
ऐसेनि जे निजज्ञानी |
खेळत सुखें त्रिभुवनी |
जगद्रूपा मनीं |
सांठऊनि मातें ||६३||

हे विश्वचि माझे घर |
ऐसी मति जयाची स्थिर |
किंबहुना चराचर  |
आपण जाहला ||६४||
मग याहीवरी पार्था |                                     
माझिया भजनी आस्था |
तरी तयातें मी माथां |
मुकुट करीं ||६५||

तो मी वैकुंठी नसें |
वेळु एक भानुबिंबी न दिसें |
वारी योगीयांचीही मानसें|
उमरडोनि जाय ||६६||

परी तयापाशी पांडवा |
मी हारपला गिंवसावा | 
जेथ नामघोषु बरवा |
करिती माझा ||६७||

कृष्ण विष्णु हरि गोविंद  |
या नावाचे निखळ प्रबंध |
माजी आत्मचर्चा विष |
उदंड गाती ||६८|

यांचिये वाचे माझे आलाप |
दृष्टी भोगी माझे चि रूप |
याचे मन संकल्प |
माझा चि वाहे ||६९||
माझिया कीर्तीविण |
यांचे रिते नाही श्रवण |
यां सर्वांगी भूषण |
माझी सेवा ||७०||
ते पापयोनी ही होतु का |
ते श्रुताधीतही न होतु का |
परी मजसी तुकिता तुका |
तुटी नाही  ||७१||

ते चि भलतेणे भावें |
मन मत आंतु येते होआवे |
आलें तरी आघवें |
मागील वावो ||७२||
जैसे तव चि वहाळ वोहळ |
जंव न पवती गंगाजळ |
मग होऊनी ठाकती केवळ |
गंगारूप ||७३||
तैसे क्षत्री वैश्य स्त्रिया  |
कां शूद्र अंत्याजादि इया |
जाती तव चि वेगळालिया |
जव न पवती मातें ||७४||

यालागी पापयोनीही अर्जुना |
कां वैश्य शूद्र अंगना |
माते भजतां सदना |
माझिया येती ||७५||

पैं भक्ति एकी मी जाणें |
तेथ सानें थोर  म्हणे |
आम्ही भावाचे पाहुणे | 
भलतेया ||७६||
येर पत्र पुष्प फळ |
हे भजावया मिस केवळ | 
वाचूनि आमुचा लाग निष्क | 
भक्तितत्त्व ||७७||

मग भूते हे भाष विसरला |
जे दिठी मी चि आहे सूदला | 
म्हणौनि निर्वैर झाला | 
सर्वत्र भजे ||७८||
हे समस्तही श्रीवासुदेव |
ऐसा प्रतीतिरसाचा वोतला भाव |
म्हणौनि भक्तांमाजी राव |
आणि ज्ञानिया तो चि ||७९ ||
तू मन हें मीचि करी |
माझिया भजनी प्रेम धरी |
सर्वत्र नमस्कारी |
मज एकाते ||८०||
माझेनि अनुसंधाने देख |
संकल्पु जाळणे निःशेख |
द्याजी चोख |
याचि नाव||८१||

ऐसा मियां आथिला होसी |
तेथ माझियाचि स्वरुपा पावसी |
हें अंतःकरणीचे तुजपासी |
बोलिजत सें ||८२||
तू मन बुद्धी साचेसी | 
जरी माझिया स्वरूपी अर्पिसी | 
तरी माते चि गा पावसी |
हे माझी भाक ||८३||
अथवा हे चित | 
मनबुद्धीसहित  |
माझ्या हाती अचुंबित |
न शकसी देवो ||८४||
तरी गा ऐसें करी | 
यया आठा प्राहारामाझारी | 
मोटके निमिषभरी | 
देतु जाय ||८५||

मग जें जें का निमिख |
देखेल माझें सुख |
तेतुलें आरोचक | 
विषयीं घेईल ||८६||
पुनवेहूनि जैसे |
शिबिंब दिसेंदिसें |
हारपत अंवसें | 
नाही चि होये  ||८७||
तैसें भोगाआंतूनि  निगता | 
चित्त मजमाजी रिगता  | 
हळू हळू पंडुसुता | 
मीचि होईल ||८८||
म्हणौनी अभ्यासासी काहीं | 
सर्वथा दुष्कर नाही |
यालागीं माझ्या ठायीं | 
अभ्यासें मीळ ||८९||  

कां जे यया मनाचें एक निकें |
जें देखिले गोडीचिया ठाया सोके | 
म्हणौनी अनुभवसुखचि कवतिकें
दावी जाइजे ||९०||
बळियें इंद्रियें येती मना | 
मन ऐकवटे पवना | 
पवन सहजे गगना |
मिळोचि लागे ||९१||

सें नेणो काय आपैसें |
तयातेचि कीजे अभ्यासें |
समाधि घर पुसे |
मानसाचे ||९२||
ऐसा जो कामक्रोधलोभां | 
झाडी करुनि ठाके उभा | 
तो चि येवढिया लाभा | 
गोसावी होय ||९३||
पाहे पां  तत्सत् ऐसे |
हें बोलणें तेथ नेतसे |
जेथुनि का हें प्रकाशे |
दृश्यजात ||९४||

सुवर्णमणि सोनया |
ये कल्लोळु जैसा पाणिया |
तैसा मज धनंजया |
शरण ये तू || ९५||
म्हणौनी मी होऊनी मातें |
सेवणें आहे आयितें |
तें करीं हाता येतें |
ज्ञानें येणें ||९६||

यालागी सुमनु आणि शुद्धमती | 
जो अनिंदकु अनन्यगति | 
पैं गा गौप्यहि परी तया प्रती |
चावळिजे सुखे ||९७||

तरी प्रस्तुत आता गुणीं इहीं |
तू वाचून आणिक नाही | 
म्हणौनी गुज तरी तुझ्या ठायी |
लपवू नये || ९८||
ते हे मंत्ररहस्य गीता | 
मेळवी जो माझिया भक्ता | 
अनन्यजीवना माता |
बाळका जैसी ||९९||      

तैसी भक्तां गीतेसी |
भेटी करी जो आदरेसी |
तो देहापाठीं मजसी | 
येकचि होय ||१००||

सें सर्व रूपरूपसें |
सर्व दृष्टीडोळसें |
सर्वदेशनिवासें |
बोलिले श्रीकृष्णे ||१०१|| 

हे शब्देविण संवादिजे |
इंद्रियां नेणतां भोगिजे |
बोलाआदि झोंबिजे | 
प्रमेयासी ||१०२|

जें अपेक्षिजे विरक्ती |
सदा अनुभविजे संती |
सोहंभावे पारंगतीं|
रमिजे जेथ ||१०३ ||

हें गीतानाम विख्यात |
सर्व वाङमयाचे मथित|
आत्मा जेणे हस्तगत |
रत्न होय || १०४ ||

वत्साचेनि वोरसें |
दुभते होय घरोद्देशें |
जालें पांडवाचेनि मिषें |
जगदुद्धरण ||१०५||

आता विश्वात्मके देवें | 
येणे वाग्यज्ञे तोषवें   | 
तोषोनि मज द्यावें |
पसायदान ||१०६||

जे खळांची व्यंकटी सांडो|
तयां सत्कर्मी रति वाढो  |
भूतां परस्परे पडो |
मैत्र जीवांचे ||१०७||

तेथ म्हणे श्रीविश्वेश्वरावो | 
हा होईल दानपसावो | 
येणें रें ज्ञानदेवो | 
सुखिया झाला || १०८ ||

भरोनि  सद्भावाची अंजुळी |
मियां वोवियाफुलें मोकळीं |
अर्पिली अंघ्रियुगली |
विश्वरुपाच्या ||१०९||
इति श्री स्वामी स्वरूपानंद संपादितं भावार्तदीपिका सार स्तोत्रं संपूर्णम|
हरये नमः | हरये नमः | हरये नमः श्रीकृष्णार्पणमस्तू |